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रक्षाबंधन पर यहां होता है पत्थरों, फूल और फलों से युद्ध, क्या है धार्मिक और ऐतिहासिक मान्यता, कत्यूर शासनकाल का भी जिक्र - मोनाल एक्सप्रेस

रक्षाबंधन पर यहां होता है पत्थरों, फूल और फलों से युद्ध, क्या है धार्मिक और ऐतिहासिक मान्यता, कत्यूर शासनकाल का भी जिक्र

साभार सोशल मीडिया
देहरादून : रक्षाबंधन के दिन हर साल उत्तराखंड के चंपावत जनपद के पाटी ब्लाक स्थित देवीधुरा नामक जगह में देवी को प्रसन्न करने के लिए चार गांवों के लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। इसे बग्वाल युद्ध कहा जाता है। यह धार्मिक परंपरा और आस्था के लिए किया जाता है। इस युद्ध को असाड़ी कौतिक के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल, चंपावत स्थित देवीधुरा का मां ब्रज वाराही धाम पत्थर युद्ध काफी प्रसिद्ध है। *क्या है मेले का इतिहास* बग्वाल हार साल रक्षाबंधन के दिन आयोजित होती है और चार खामों- सात थोकों के लोगों के मध्य खेली जाती है। कुछ लोग इसे कत्यूर शासनकाल से चला आ रहा पारंपरिक त्योहार मानते हैं, जबकि अन्य इसे काली कुमाऊं की प्राचीन संस्कृति से जोड़कर देखते हैं।
साभार सोशल मीडिया
*क्या मान्यता है* प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों द्वारा अपनी आराध्य वाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए बारी-बारी से हर वर्ष नर बलि दी जाती थी। किंवदंती के अनुसार, एक साल चम्याल खाम की एक वृद्धा के परिवार की नर बलि देने की बारी थी। परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे। कहा जाता है कि महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां वाराही की स्तुति की। मां वाराही ने वृद्धा को स्वप्न में दर्शन दिया और उसे मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के निर्देश दिए। कहा कि चार खाम के लोग मंदिर परिसर में बग्वाल खेलेंगे और उसमें एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहेगा तो वह प्रसन्न हो जाएंगी। देवी के स्वप्न में कही बात वृद्धा ने गांव के बुजुर्गों को बताई। तब से नर बलि के विकल्प के रूप में बग्वाल की प्रथा शुरू हुई।जाती है। इसमें चारों खामों के युवक और बुजुर्ग मौजूद रहते हैं। लमगड़िया व बालिक खामों के रणबांकुरे एक तरफ जबकि दूसरी ओर गहड़वाल और चम्याल खाम के योद्धा होते हैं। रक्षाबंधन के दिन सुबह योद्धा वीरोचित वेश में सज-धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। मां ब्रज वाराही के जयकारे के साथ मंदिर की परिक्रमा करते हैं। उनके हाथों में फर्रे भी होते हैं। मंदिर के पुजारी का आदेश मिलते ही दोनों और पत्थरों को फेंकने का क्रम शुरू हो जाता है। पत्थरों की मार से लोग घायल हो जाते हैं और उनका रक्त बहने लगता है। एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहने के बाद मंदिर के पुजारी शंखनाद करते हुए चंवर डुलाकर मैदान में प्रवेश करते हैं, जिसके बाद बग्वाल रोक दी जाती है। इसमें कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता। अंत में सभी लोग आपस में गले लगते हैं। *कोर्ट में गया था मामला* पत्थर से युद्ध खेलने की परंपरा के खिलाफ वर्ष 2013 में नैनीताल हाई कोर्ट में किसी ने जनहित याचिका लगाई थी। इस पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने पत्थर युद्ध रोकने के आदेश जारी कर दिए। तब से यहां पत्थरों के बदले फल और फूलों से बग्वाल खेली जा रही है, लेकिन परंपरा खत्म न हो इसके लिए फल और फूलों के साथ आंशिक रूप से पत्थर फेंके जाते हैं।

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