अब पिरुल से बनेगी कम्प्रेस्ड बायो गैस, जंगल में आग लगने की घटनाएं भी होंगी कम

 देहरादून। उत्तराखण्ड में हर साल जंगल में आग लगने से हजारों हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान होता है। जिसमें लाखों रुपए की वन संपदा के साथ ही वन्य जीव जंतुओं को भी हानि होती है। वनाग्नि का सबसे बड़ा कारण उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ की पत्तियां भी हैं, जिन्हें हम पिरुल कहते हैं। जहां जहां चीड़ के पेड़ हैं वहां नीचे पिरुल पड़ा रहता है। जो फसल को नुकसान तो पहुंचता ही है। साथ ही इसमें आग बहुत तेजी से फैलती है। जंगल की आग के स्थायी समाधान के तरीके ढूंढे जा रहे हैं। साथ ही पिरूल से सीबीजी (कम्प्रेस्ड बायो गैस) उत्पादन की संभावनाओं पर उत्तराखंड शासन में मंथन चल रहा है। बुधवार को इस संबंध में मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में एक अहम बैठक भी हुई है।

मुख्य सचिव राधा रतूड़ी ने इस सम्बन्ध में ऊर्जा, ग्राम्य विकास, पंचायती राज एवं वन आदि सम्बन्धित विभागों तथा इण्डियन ऑयल के अधिकारियों की एक कमेटी गठित करने के निर्देश दिए है।

मुख्य सचिव ने इण्डियन ऑयल को राज्य में पिरूल की सीबीजी उत्पादन में फीड स्टाॅक के रूप में प्रयोग करने, जैविक खाद तथा ग्रीन हाइड्रोजन के रूप उपयोगिता की संभावनाओं पर अध्ययन कर रिपोर्ट शासन को भेजने के लिए कहा है। मुख्य सचिव ने इण्डियन ऑयल को इस सम्बन्ध में अपनी एक आन्तरिक कमेटी गठित कर डिटेल फिजीबिलिटी रिपोर्ट शासन को जल्द देने के लिए कहा है। उन्होंने इस सम्बन्ध में प्रोजेक्ट को संचालित करने हेतु गढ़वाल तथा कुमाऊं में संभावित एक-एक स्थान की पहचान करने के निर्देश दिए हैं।

इण्डियन ऑयल के अनुसार उत्तराखण्ड में पिरूल की कुल उपलब्धता में से लगभग 40 प्रतिशत कलेक्शन की संभावनाओं के बाद 60 हजार-80 हजार टन प्रतिवर्ष सीबीजी उत्पादन की उम्मीद की जा सकती है। राज्य में पिरूल का प्रतिवर्ष 1.3 से 2.4 एमएमटी सकल उपलब्धता है। चीड़ के जंगल राज्य में 4 लाख हेक्टेयर पर फैले हुए हैं। यहां प्रति हेक्टेयर 2-3 टन पिरूल उपलब्ध है।

मुख्य सचिव राधा रतूड़ी ने इस प्रोजेक्ट पर इण्डियन ऑयल के साथ वन विभाग, पशुपालन एवं सहकारिता विभाग को सक्रियता से कार्य करने के निर्देश दिए हैं।

बैठक में प्रमुख सचिव आर के सुधांशु, सचिव आर मीनाक्षी सुन्दरम, दिलीप जावलकर सहित वन, नियोजन, वित्त, ऊर्जा विभाग तथा इण्डियन ऑयल के अधिकारी मौजूद रहे।

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