*पितृ पक्ष विशेष*
*✍️ज्यो: आचार्य अनिल जोशी
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एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन
दद्याज्जलाज्जलीन।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से है। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। उस पर प्रसन्न होकर पितृ उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।
इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे – रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।
पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं।
पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है।
श्राद्ध या पिण्डदान दोनो एक ही शब्द के दो पहलू है पिण्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिण्डाकार मे बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिण्डदान कहते है दझिण भारतीय पिण्डदान को श्राद्ध कहते है।
श्राद्ध के प्रकार
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शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं।
1👉 नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं।
2👉 नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है।
3👉 काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है।
4👉 वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं।
5👉 पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं।
6👉 सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है।
7👉 गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।
8👉 शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं।
9👉 कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं।
10👉 दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं।
11👉 यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं।
12👉 पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं।
13👉 श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं।
कब किया जाता है श्राद्ध?
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श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं ।
1👉 भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष के 16 दिन।
2👉 वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या।
3👉 वर्ष की 12 संक्रांतियां।
4👉 वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ।
5👉 वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ।
6👉 वर्ष में 12 वैध्रति योग।
7👉 वर्ष में 12 व्यतिपात योग।
8👉 पांच अष्टका।
9👉 पांच अन्वष्टका।
10👉 पांच पूर्वेघु।
11👉 तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा।
12👉 एक कारण : विष्टि।
13👉 दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी।
14👉 ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण।
15👉 मृत्यु या क्षय तिथि।
किसके निमित्त कौन कर सकता है श्राद्ध
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हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है। इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।
👉 पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।
👉 पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
👉 पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
👉 एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।
👉 पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।
👉 पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
👉 पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
👉 पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
👉 पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।
👉 गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।
👉 कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।
क्यों आवश्यक है श्राद्ध?
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श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं।
1👉 श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है।
2👉 श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है।
3👉 महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है।
4👉 मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
5👉 अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है।
6👉 यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है।
7👉 ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है। श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें पितृ कार्य कार्तिक या चैत्र मास मे भी किया जा सकता है।
श्राद्ध में कुश और तिल का महत्व
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दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।
महालयश्राद्ध 2023 की तिथियां
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29 सितम्बर शुक्रवार👉 मूकबधिर (गूंगे बहरे पितृ का श्राद्ध, पूर्णिमा एवं प्रतिपदा (पड़वा) तिथि का श्राद्ध।
30 सितम्बर शनिवार👉 द्वितीया तिथि का श्राद्ध।
01 अक्टूबर रविवार👉 तृतीया तिथि का श्राद्ध।
02 अक्टूबर सोमवार👉 चतुर्थी तिथि का श्राद्ध, (भरणी श्राद्ध)।
03 अक्टूबर मंगलवार👉 पंचमी तिथि का श्राद्ध।
04 अक्टूबर बुधवार👉 षष्ठी तिथि का श्राद्ध।
05 अक्टूबर गुरुवार👉 सतमी तिथि का श्राद्ध।
06 अक्टूबर शुक्रवार👉 अष्टमी तिथि का श्राद्ध।
07 अक्टूबर शनिवार👉 नवमी तिथि का श्राद्ध, सौभाग्यवती (मातृ नवमी) श्राद्ध।
08 अक्टूबर रविवार👉 दशमी तिथि का श्राद्ध।
09 अक्टूबर सोमवार👉 एकादशी तिथि का श्राद्ध।
11 अक्टूबर बुधवार👉 द्वादशी तिथि का श्राद्ध।
12 अक्टूबर गुरुवार👉 त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध।
13 अक्टूबर शुक्रवार👉 चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध – अकाल मृत्यु (शस्त्र अथवा दुर्घटना में मरे) पित्रो का श्राद्ध।
14 अक्टूबर रविवार👉 अमावस्या तिथि का श्राद्ध / सर्वपित्र श्राद्ध।
विशेष👉 पित्रो के निमित्त श्राद्ध तर्पण आदि का समय दिन के मध्यान काल मे माना जाता है। इस वर्ष आश्विन कृष्ण पूर्णिमा और प्रतिपदा तिथि 29 और 30 सितम्बर दोनों दिन अपराह्न व्यापिनी है अतः यहां प्रतिपदा का श्राद्ध 29 सितंबर को किया जाएगा। क्योंकि इस स्थिति में श्राद्ध उसी दिन किया जाता है जिस दिन तिथि अपराह्न को अधिक व्यापत करें इस वर्ष प्रतिपदा अपराह्न काल के अधिक भाग को 29 सितंबर के दिन ही व्याप्त कर रही थी इसलिए प्रतिपदा का महालय श्राद्ध 29 सितंबर को किया जाएगा और द्वितीया का श्राद्ध 30 सितम्बर को किया जाएगा।
तथा इस वर्ष एकादशी तिथि 9 अक्टूबर एक 10 अक्टूबर दोनों ही दिन मध्याह्न काल को व्याप्त कर रही है लेकिन इसका मान 9 अक्टूबर के दिन अधिक समय तक रखने के कारण एकादशी का श्राद्ध 9 अक्टूबर को ही किया जाएगा इस वर्ष 10 अक्टूबर को कोई भी श्राद्ध नहीं होगा। इसके बाद 11 अक्टूबर के दिन द्वादशी तिथि का श्राद्ध किया जायेगा।
#श्राद्ध_की_परिभाषा———!!
पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है-उसे श्राद्ध कहतेहै–
#श्रद्धया_पितृन्_उद्दिष्य_विधिना_क्रियते_यत्कर्म_तत्_श्राद्धम्!
श्रद्धा से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है!
#श्रद्धार्थमिदं_श्राद्धम्–#श्रद्धया_कृतं_सम्पादितं_श्रद्धया_दीयते_यस्मात्_तच्छ्राद्धम्**#तथा_श्रद्धादौ_इदं_श्राद्धम्।
अर्थात अपने मृत पितृगणों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कर्मविशेषं को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है।
इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं!जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों ,पुराणों ,वीरमित्रोदय ,श्राद्धकल्पलता, श्राद्ध तत्व ,पितृदयिता आदि अनेक ग्रंथो में प्राप्त होता है।
महर्षि पराशर के अनुसार देश,काल तथा पात्र में हविष्यादि विधिद्वार जो कर्म तिल(यव)और दर्भ (कुश)तथा मन्त्रो से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध है।
महर्षि वृहस्पति तथा श्राद्ध तत्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के अनुसार–
जिस कर्म विशेष में दुग्ध-घृत-मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाए हुये)उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए,उसे श्राद्ध कहते है!
इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा हुआ है–देश काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाए उसे श्राद्ध कहते है। #देशे_काले_च_पात्रे_विधिना_हविषा_च_यत्।
#तिलैर्दर्भैश्च_मन्त्रैश्च_श्राद्धम्_स्याच्छ्रद्धया_युतम्।।
#संस्कृतं_व्यंजनाद्यं_च_पयोमधुघृतान्वितम्।
#श्रद्धया_दीयते_यस्माच्छ्राद्धं_तेन_निगद्यते।।
#देशे_काले_च_पात्रे_च_श्रद्धया_विधिना_च_यत्।
#पितृनुद्दिष्य_विप्रेभ्यो_दत्तं_श्राद्धमुदाहृतम्।।
Aacharya Anil Joshi
प्रश्न नही स्वाध्याय करें।
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#श्राद्ध_कर्ता_का_भी_कल्याण–!!
जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध कर्ता है,वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार चक्र में नही आता ।
#योनेन_विधिना_श्राद्धं_कुर्याद्_वै_शान्तमानस:!
#व्यपेतकल्मषो_नित्यं_याति_नावर्तते_पुनः!!
अतः प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये भी श्राद्ध करना चाहिये।
इस संसार मे श्राद्ध करने वाले के लिये श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नही है।
इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा की गयी है—-:
#श्राद्धात्_परतरं_नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम्।
#तस्मात्_सर्वप्रयत्नेन_श्राद्धं_कुर्याद्विचक्षण:!!
अर्थात-इस जगत में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नही है,अतः वुद्धिमान मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
इतना ही नही ,श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु बढ़ा देता है,पुत्र प्रदानकर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है,धन-धान्य की वृद्धि करता है, शरीर मे बल पौरुष की वृद्धि का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है!
यथा–: #आयु:#पुत्रान्_यथा_स्वर्गं_कीर्तिं_पुष्टिं_बलं_श्रियम्।
#पशून्_सौख्यं_धनं_धान्यं_प्राप्नुयायात्_पितृपूजनात्।।
Aacharya Anil Joshi
प्रश्न नही स्वाध्याय करे
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||—#श्राद्ध_से_मुक्ति—||
इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुखमय तो बनाता ही है, परलोक भी सुधारता है और अंत मे मुक्ति भी प्रदान करता है–
#आयु:प्रजां_धनं_विद्यां_स्वर्गं_मोक्षं_सुखानि_च ।
#प्रयच्छन्ति_तथा_राज्यं_पितरःश्राद्ध_तर्पिता:।।
मार्कण्डेय पुराण
अर्थात श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्ध कर्ता को दीर्घ आयु ,सन्तति,धन, विद्या,राज्य ,सुख,स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते है।
अत्रि संहिता का वचन है–जो पुत्र भ्राता पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकर्म (श्रद्धानुष्ठान)-में संलग्न रहते हैं ,वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं।
#पुत्रो_व_भ्रातरो_वापि_दौहित्र:#पौत्रकस्तथा!
#पितृकार्ये_प्रसक्ता_ये_ते_यान्ति_परमां_गतिम्।।(सुमन्तु)
यहां तक लिखा है कि जो श्राद्ध कर्ता है ,जो उसके विधि विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है प्रेरित करता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है –इन सबको श्राद्ध का पुण्य फल अवश्य प्राप्त होता है। #उपदेष्टा_नुमन्ता_च_लोके_तुल्य_फलौ_स्मृतौ–बृहस्पति
Aacharya Anil Joshi
प्रश्न नही स्वाध्याय करें!!
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#श्राद्ध_न_करने_से_हानि—-इसलिये श्राद्ध अवश्य करे||
शास्त्र ने श्राद्ध न करने से होनेवाली जो हानि बताई है उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते है।
अतः श्राद्ध तत्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिये तत्पर रहना अत्यंत आवश्यक है।
यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी नही ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न जल)कैसे ले जा सकते है?
उस समय उसके सगे सम्बन्धी श्राद्ध विधि से जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है।शास्त्र ने मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है, सर्वप्रथम शवयात्रा के अंतर्गत छ:पिंड दिए जाते है
जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत -पिशाचों द्वारा होनेवाली वाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
इसके साथ ही दशगात्र में दिए जानेवाले दश पिंडो के द्वारा जीव को आतिवाहक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है।
मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई ।
अब आगे उसे पाथेय (रास्ते के भोजन –अन्न जल आदि–)की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तम षोडसी में दिए जाने वाले पिण्डदान से उसे प्राप्त होता है।यदि सगे -सम्बन्धी पुत्र -पौत्रादि न दे तो भूख-प्यास से उसे वहां महादारुण दुख होता है—-:::
#लोकांतरेषु_ये_तोयं_लभन्ते_नान्यमेव_च।
#दत्तं_न_वंशजैर्येषां ते_व्यथां_यान्ति_दारुणम्।—सुमन्तु..
Aacharya Anil Joshi
प्रश्न नही स्वाध्याय करे।।
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#श्राद्ध_न_करने_वाले_को_कष्ट—।
श्राद्ध न करने वाले को भी पग पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है।
मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करनेवाले अपने सगे सम्बन्धियो का रक्त चूसने लगता हैं—-:
#श्राद्धं_न_कुरुते_मोहात्_तस्य_रक्तं_पिवन्ति_ते–ब्र-पु–
साथ ही साथ वह श्राप भी देते हैं—
#पितरस्तस्य_शापं_दत्वा_प्रयान्ति_च-नागरखण्ड-!
फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही सहन करना पड़ता है।उस परिवार में पुत्र नही उत्पन्न होता ,कोई निरोग नही रहता,लंबी आयु नही होती,किसी तरह का कल्याण प्राप्त नही होता और मरने के बाद नरक भी जाना पड़ता है।
#न_तत्र_वीरा_जायन्ते_नारोग्यं_न_शतायुष:।
#न_च_श्रेयोधिगच्छन्ति_यत्र_श्राद्धं_विवर्जितम्–हारीत–
#श्राद्धमेतन्न_कुर्वाणो_नरकं_प्रति_पद्यते–विष्णु स् —
उपनिषद् में भी कहा गया है–#देवपितृ_कार्याभ्यां_न_प्रमदितव्यम्–तै-उप-१-११-१अर्थात देवता तथा पितृ कार्यो में मनुष्य को कदापि प्रमाद नही करना चाहिये।
प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।
Aacharya Anil Joshi
प्रश्न नही स्वाध्याय करें।।
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#पितरों_को_श्राद्ध_प्राप्ति_कैसे_होती_है?
यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियां पितरों को कैसे मिलती है, क्योकि विभिन्न कर्मो के अनुसार मृत्यु के वाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है।
कोई देवता,कोई पितर, कोई प्रेत ,कोई हाथी, कोई चींटी ,कोई वृक्ष, कोई तृण,!
श्राद्ध में दिए गए छोटे से छोटे पिंड से हाथी का पेट कैसे भरेगा?
इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिंड को कैसे खा सकती है?
देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ?
इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम गोत्र के माध्यम से विश्वेदेव एवं अग्निश्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कब्य को पितरों प्राप्त करा देते हैं।
यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया तो दिया गया अन्न उसे वहां अमृत रूप होकर प्राप्त हो जाता है।मनुष्य योनि में अन्न रूप में तथा पशु योनि में तृण रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है।नागादि योनियों में वायु रूप से ,यक्ष योनि में पान रूप से,तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थो के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है—
#नाममन्त्रास्तथा_देशा_भवन्तरगतानपि ।
#प्राणिन:#प्रीणयन्त्येते_तदाहारत्वमांगतान्।।
#देवो_यदि_पिता_जात:#शुभकर्मानुयोगत:!
#तस्यान्नममृतं_भूत्वा_देवत्वेप्यनुगच्छति ।।
#मर्तयत्वे_ह्यन्नरूपेण_पशुत्वे_च_तृणं_भवेत्।
#श्राद्धान्नं_वायुरूपेण_नागत्वे_प्युपतिष्ठति।।
#पानं_भवति_यक्षत्वे_नाना_भोगकरं_तथा–÷
जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न- किसीप्रकार ढूढ ही लेता है,उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी न- किसी प्रकार पहुंचा ही देता है।
नाम गोत्र,ह्रदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्प पूर्वक दिए हुए पदार्थो को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुंचा देता है।
जीव चाहे सैकड़ो योनियों को भी पार क्यो न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
#यथा_गोष्ठे_प्रणष्टां वै_वत्सोविंदेतमातरम्।
#तथा_तं_नयते_मन्त्रोजंतुर्यत्रावतिष्ठते।।
#नामगोत्रं_च_मन्त्रश्च_दत्तमन्नंनयन्ति तम्।
#अपि_योनि_शतं_प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति।
#नामगोत्रंपितृणाम्_तु_प्रापकं_हव्यकव्ययो:!
श्राद्धस्यमन्त्रस्तस्तत्त्वमुप_लभ्येत्भक्तित:!!
#अग्निश्वात्तादयस्तेषामधिपत्येव्यवस्थिता:!
#नाम_गोत्रास्तथा_देशा_भवन्त्युद्भवतामपि!!
प्रश्न नही स्वाध्याय करें।।
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----#ब्राह्मण_भोजन_से_भी_श्राद्ध_की_पूर्णता!!
सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रकिया है---१पिण्डदान और २-ब्राह्मण भोजन
मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वे मन्त्रो द्वारा बुलाये जाने पर उन -उन लोको से तत्क्षण श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं।
सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्मकणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं।वेद ने बताया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है----:
#इममोदनंनिदधे_ब्राह्मणेषु_विष्टारिणम्_लोकजितं_स्वर्गम्।अथर्व-४-३४-८)
(इमं ओदनम् )इस ओदनोपलक्षित भोजन को (ब्राह्मणेषु नि दधे)ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूं ।यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्ग लोक को जीतने वाला है।
इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनु ने लिखा है---:
#यस्यास्येनसदास्न्नती_हव्यानित्रिदिवौकस:!
#कव्यानिचैवपितरः#किं_भूतमधिकं_तत:!
अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर क़व्य को ग्रहण करते हैं।
पितरों के लिये लिखा है-कि ये अपने कर्मवश अंतरिक्ष मे वायवीय शरीर धारण कर रहते हैं।अंतरिक्ष मे रहनेवाला इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है-----यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है।
ये मनोजव होते हैं अर्थात इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है।ये स्मरण से ही श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं।इनको सब लोग इसलिये नही देख पाते क्योकि इनका शरीर वायवीय होता है--!
#तस्य_तेपितरः#श्रुत्वाश्राद्धकालमुपस्थितम्।
#अन्योन्यंमनसा_ध्यात्वा_सम्पतन्तिमनोजवा:!!
#ब्राह्मणैस्तेसहास्नन्तिपितरो_ह्यन्तरिक्षगा:!
#वायुभूतास्तुतिष्ठन्ति_भुक्त्वायान्ति_परांगतिम्।कूर्म-उ वि२२!३-४
इस विषय मे मनुस्मृति में भी कहा गया है--श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों में पितर गुप्त रुप सेनिवास करते है।
प्राणवायु की भांति उनके चलते समय चलते हैं और वैठते समय वैठते है।श्राद्धकाल मे निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप या वायु रूप में पितर आते हैं-----!:
#निमंत्रितान्_हि_पितरउपतिष्ठन्तितान्_द्विजान्।
#वायुबच्चानुगच्छन्ति_तथासीनानुपासते।।मनु-३/१८९
मृत्यु के उपरांत पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नही पाता।शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि----:
#तिर_इव_वैपितरो_मनुष्येभ्य:"(२!३!४!२१)
अर्थात सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यो से छिपे हुए से होते हैं।अतएव सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ये जल अग्नि तथा वायु प्रधान होते हैं, इसलिये लोक -लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नही होती।
प्रश्न नही स्वाध्याय करें-श्रद्धा रखे!!
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#धना_भाव_मे_भी_श्राद्ध_की_सम्पन्नता???
धन की परिस्थिति सबकी एक -सी नही रहती । कभी कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है,इस दृष्टि से शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है --
यदि अन्न खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध कर देना चाहिये--- #तस्माच्छ्राद्धंनरो_भक्त्या_शाकै_रपि_यथा_विधि--!
यदि शाक खरीदने में भी असमर्थ हो तो तृण काष्ठ आदि को वेचकर द्रव्य एकत्रित करें और उन पैसों से शाक ख़रीदकर श्राद्ध करे--
#तृणकाष्ठार्जनंकृत्वा_प्रार्थयित्वा_वराटकम्।
#करोति_पितृ_कार्याणि_ततो_लक्षगुणो_भवेत्।।-
अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है-अतः फल लाख गुना होता है।
--देशविशेष और कालविशेष के कारण लकड़ियाँ भी नही मिलती !ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया है कि घास से श्राद्ध हो सकता है। घास काटकर गाय को खिला दे।यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है ।इसके साथ ही इसने इस सम्बंध की एक छोटी सी घटना प्रस्तुत की है--
एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यंत ग्रस्त था!उसके पास इतना पैसा नही था कि शाक खरीदा जा सके ।इस तरह वह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह नही था।आज ही श्राद्ध तिथि थी।'"कुतप काल "भीआ पहुंचा था।इस काल के वीतने पर श्राद्ध नही हो सकता था।वेचारा घबरा गया--रो पड़ा--श्राद्ध करे तो कैसे करें??एक विद्वान ने उसे सुझाया --अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरो के नाम पर गाय को खिला दे ।वह दौड़ गया और घासकाटकर गायों को खिला दी ।इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देवलोक की प्राप्ति हुई --
#एतत्_पुण्य_प्रसादेन_गतोसौसुरमन्दिरम्-
ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि घास का भी मिलना सम्भव नही होता।तब श्राद्ध कैसे करें??
शास्त्र ने इसका समाधान यह किया है कि श्राद्धकर्ता को देश कालवश जब घास का भी मिलना सम्भव न हो ,तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाये।दोनों भुजाओं को उठाकर निम्नलिखित श्लोक से पितरो की प्रार्थना करे--
#न_मेस्ति_वित्तं_न_धनं_च_नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं_स्वपितृन्नतोस्मि।
#तृप्यन्तु_भक्त्या_पितरो_मयेतौ_कृतौ_भुजौ वर्तम्नि_मारुतस्य!!
अर्थात हे मेरे पितृगण ।मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है ,न धान्य आदि है।हाँ मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है।में इन्ही के द्वारा तृप्त करना चाहता हूं।आप तृप्त हो जाये।मैंने(शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप )दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
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#यह_स्मरण_अवश्य_रखे!!
श्राद्ध कार्य मे साधन धन सम्पन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य (कंजूसी) नही करनी चाहिये---
#वित्तशाठ्यम्_न_समाचरेत्।अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
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उपयुक्त अनुकल्पो से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी- न- किसी तरह श्राद्ध को अवश्य करे।शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दों में श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है।
श्राद्ध करे ही---
#अतोमूलै:#फलैर्वापितथाप्युदकतर्पणै:#पितृतृप्तिंप्रकुर्वीत् -------!!
श्राद्ध छोड़े नही---
#नैव_श्राद्धम्_विवर्जयेत्।
प्रश्न नही स्वाध्याय करे।।
||व्यर्थ कुछ लिखने से अच्छा है कुछ सार्थक लिखे||
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#श्राद्ध_के_अधिकारी_कौन???
पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है।बहुत पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह की सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये।
विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है।यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है।यदि पुत्र अलग-अलग हो तो उन्हें वार्षिक श्राध्द अलग अलग करना चाहिये----!:
#मृते_पितरि_पुत्रेणक्रिया_कार्या_विधानत:!
#वहव:स्युर्यदापुत्रा:#पितुरेकत्रवासिनः।।
#सर्वेषां_तु_मतं_कृत्वा_ज्येष्ठे_नैव_तु_यत्कृतम्।
#द्रव्येण_चाविभक्तेनसर्वेरैव_कृतं_भवेत्।।---वीरमित्रोदय श्रा0प्र०में प्रचेता का वचन)
#एकादशाद्या:क्रमशो ज्येष्ठस्य विधिवत् क्रिया:।
क़ुर्युर्नैकेकश: श्राद्धमाब्दिकं तु प्रथक् प्रथक्।।--उपरोक्त--
: यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यस्थाये प्राप्त है।स्मृतिसंग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध के अधिकारी पुत्र पौत्र प्रपौत्र दौहित्र(पुत्री का पुत्र)भाई भतीजा भानजा पिता पत्नि माता पुत्र वधु वहिन सपिंड(स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक का परिवार)तथा सोदक (आठवी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के परिवार) कहे गए हैं!यथा----:
मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यंतं सपिंडा:,अष्टमारभ्य चतुर्दशपुरूषपर्यंतं सोदका:,पंचदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:।पित्रादयस्त्रयश्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रय:।।
सप्तम:स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यम् वुधै:स्मृतम्।
सापिंड्यम् सोदकं चैव सगौत्रम् वै क्रमात्।।
एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्।।--लघवाश्वलायन स्मृति--२०/८२-८४)
कहे गए है--इनमें पूर्व -पूर्व के न रहने पर क्रमश: बाद के लोगो का श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है।
पुत्र पौत्राश्च तत्पुत्रः पुत्रिका पुत्र एव च।
पत्नि भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा!!
भगिनी भागिनेयश्च सपिंड: सोदकस्तथा।
असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदा:स्मृताः।।(स्मृति-सं०,श्राध्द०कल्प०)
विष्णुपुराण के वचन अनुसार पुत्र पौत्र प्रपौत्र भाई भतीजा अथवा अपनी सपिंड सन्तति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्ध क्रिया करने अधिकारी होता है।यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदक की सन्तति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा समानोदक को इसका अधिकार है।मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर स्त्री ही इस क्रिया को करे अथवा(यदि स्त्री भी न हो तो)साथियों में से ही कोई करे या बाँधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके प्रेत कर्म करावे।
पुत्र:पौत्र:प्रपौत्रोवा भ्राता वा भ्रातृसन्तति:!
सापिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते!!
तेषामभावे सर्वेषां समानोदक सन्तति:!
मातृपक्ष सपिंडेन सम्बद्धा ये जलेन वा ।
कुलद्वेपि चोच्छिन्नो स्त्रिभि: कार्या: क्रिया नृप!!
सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया:!उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनी पति:!!
हेमाद्रि के अनुसार पिता की पिण्डदानादि क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिये।
(पुत्र के अभाव में पत्नी करे पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिये-)
पितु:पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदक क्रिया।
पुत्राभावे तु पत्नीस्यात् पत्न्यभावे तु सोदर:(हेमाद्रि में शंख का वचन)
मार्कण्डेय पुराण में बताया गया है कि चूंकि राजा सभी वर्णों का बन्धु होता है।अतः सभी श्राद्धाधिकारी जनों के अभाव होने पर राजा उसमृत व्यक्ति के धन से उसके जाति के बांधवों द्वारा भलीभांति दाह आदि सभी और्ध्वदैहिक क्रिया कराये।।--।।
सर्वाभावे तु नृपति:कारयेत तस्य रिक्वत:!
तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्या: सकला:क्रिया:!!
||सर्वेषामेव वर्णानां वांधवो नृपतिर्यत:||
प्रश्न नही स्वाध्याय करें।।
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शास्त्रों में श्राद्ध के अनेक भेद है, किंतु यहाँ उन्ही श्राद्धों को उल्लेखित किया जाता है ,जो अत्यंत आवश्यक और अनुष्ठेय है---
मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गये है--
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते--!!
नित्य नैमित्तिक और काम्य -भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं||
यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है--नित्य,नैमित्तिक, काम्य,वृद्धि और पार्वण--
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम्।
#पार्वणम् चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं वुधै||
प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राध्द कहते हैं।इसमें विश्वेदेव नही होते तथा अशक्तावश्था में केवल जलप्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है---:
#अहन्यहनि यच्छ्राद्धम् तन्नित्यमिति कीर्तितम्!
#वैश्विदेवविहीनं तदशक्तावुदकेन तु!!
तथा एकोदिष्ट श्राद्धको नैमित्तिक श्राध्द कहते हैं, इसमें भी विश्वेदेव नही होते ।किसी कामना की पूर्ति निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध को काम्यश्राद्ध कहते हैं!
वृद्धिकाल में पुत्रजन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य मे जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृध्दि श्राद्ध (नांदिश्राद्ध)कहते हैं।पितृपक्ष, अमावश्या ,अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव (विश्वेदेव सहित) श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं||
विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्यपुराण नित्य,नैमित्तिक, वृद्धि,पार्वण ,सपिण्डन, गोष्ठी ,शुद्धयर्थ कर्मांग,दैविक,यात्रार्थ,तथा पुष्ट्यर्थ --ये द्वादश प्रकार के श्राद्ध बताये गये है----÷
#नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्।
#पार्वणम् चेति विज्ञेयं गोष्ठीम् शुद्धयर्थमष्टकम्।।
#कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्!
#यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम्।।
--------ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गये है ।प्रायः सभी श्राद्धों का अंतर्भाव उपर्युक्त पञ्चश्राद्धों में हो जाता है।
जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्ड का पितृपिण्डो में सम्मेलन किया जाये,उसे सपिण्डन श्राध्द कहते है।
समूहोंमें जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है ,उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं।गर्भाधान, सीमन्तोनयन,तथा पुंसवन आदि संस्कारो के समय जो श्राध्द किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ठ हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो श्राध्द किया जाता है, उसे दैविक श्राध्द कहते हैं!तीर्थ के उद्देश्य से देशांतर जाने के समय घृतद्वारा जो श्राद्धकिया जाता है ,उसे यात्रार्थश्राध्द कहते है!शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिये जो श्राद्ध किया जाता है,उसे पुष्ट्यर्थश्राध्द कहते हैं।
उपर्युक्त सभी श्राद्ध श्रोत स्मार्त्त --भेद से दो प्रकार के होते है।पिण्डपितृयाग--÷÷
(अमावश्यायां पिण्डपितृयाग:--(इस वचन के अनुसार पिंडपितृयाग "अमावश्या के लिए होता है ।इस याग को करने का अधिकार केवल अग्निहोत्री को है)को श्रोतश्राद्ध कहते हैं-और-एकोदिष्ट ,पार्वण ,तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरणतक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते हैं।
श्राद्ध के ९६अवसर है।बारह मास की अमावश्याएँ ,सत्ययुग,त्रेतादि,युगों की प्रारम्भ की चार युगादि तिथियाँ,मनुओं के आरंभ की चौदह,मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियाँ, बारह वैधृति योग,बारह व्यतीपात योग,पंद्रह महालय श्राद्ध(पितृपक्ष)पांच अष्टका,पांच अनवष्टका,तथा पांच पूर्वेद्यु:--ये ९६अवसर श्राद्ध के लिये है--||
#अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालया:!
#अष्टकान्वष्टकापूर्वेद्यु:श्राद्धैर्नवतिश्च षट्||
प्रश्न नही स्वाध्याय करें||
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#मृत्युतिथि_तथा_पितृपक्ष_में_श्राद्ध_करना_आवश्यक---||वर्तमान समय मे अधिकांश मनुष्य श्राद्ध को व्यर्थ समझकर नही करते-जो लोग श्राद्ध करते है उनमें कुछ तो यथाविधि नियमानुसार श्रद्धा के अनुसार श्राध्द करते हैं।
किंतु अधिकांशत: लोग तो रीति-रिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते हैं।वस्तुतः श्रद्धा भक्ति द्वारा शास्त्रोक्तविधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविध कल्याण प्रदान करता है।अतः प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक शास्त्रोक्तविधि से समस्त श्राद्धों को यथासमय करते रहना चाहिये।
जो लोग शास्त्रोक्त सम्मत श्राद्धों को न कर सकें ,उन्हें कम से कम- क्षयाह-वार्षिक तिथि पर तथा आश्विन मास के पितृपक्ष में तो अवश्य ही अपने पितृगण के मरणातिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिये।पितृपक्ष के साथ पितरो का विशेष सम्बन्ध रहता है।
भाद्रपद शुक्ल पुर्णिमा से पितरो का समय प्रारम्भ हो जाता है, जो अमावश्या पर्यंत रहता है।शुक्ल पक्ष पितरो की रात्रि कही गयी है।
इसलिए मनुस्मृति में कहा गया है----मनुष्यों के एक मास के बराबर पितरो का एक अहोरात्र (दिन-रात)होता है।मास में दो पक्ष होते हैं।मनुष्यो का कृष्णपक्ष पितरो के कर्म का दिन और शुक्ल पक्ष पितरों के सोने के लिये रात होती है---
#पित्र्येरात्र्यहनीमास:#प्रविभागस्तु_पक्षयो:|
#कर्मचेष्टास्वह:#कृष्ण:#शुक्ल:#स्वप्नायशर्वरी!!मनु-१-६६
यही कारण है कि आश्विनमास के कृष्णपक्ष --पितृपक्ष पितृश्राद्ध करने का विधान है।ऐसा करने से पितरो को प्रतिदिन भोजन मिल जाता है।इसलिए शास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्ध करने की विशेष महिमा लिखी गयी है।
महर्षि जाबालि कहते है-----:÷
#पुत्रानायुस्तथारोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा!
#प्राप्नोति_पन्चेमान_कृत्वा_श्राद्धं_कामांश्च_पुष्कलान्||
तातपर्य यह है कि पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र,आयु,आरोग्य,अतुल ऐश्वर्य ओर अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति होती है
प्रश्न नही स्वाध्याय करे।।
>>>>>>>>। ।>>>>>>
#श्राध्द_की_संक्षिप्त_विधि_आपत्ति_कालिक_सामान्य_में_विधिवत_करें||
—-सामान्य रूप में कम से कम वर्ष में दो बार श्राद्ध करना अनिवार्य है।इसके अतिरिक्त अमावश्या,व्यतीपात, संक्रांति आदि पर्व की तिथियों में भी श्राद्ध करने की विधि है।
–१-क्षयतिथि–जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है-उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये।शास्त्रों में क्षयतिथि पर एकोदिष्ट श्राद्ध करने का विधान है(कुछ प्रदेशो में पार्वण श्राद्ध भी करते हैं)एकोदिष्ट का तात्पर्य है कि केवल मृत व्यक्ति के निमित्त एक पिंड का दान तथा कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाये और अधिक से अधिक तीन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाए।
–२-पितृपक्ष–पितृपक्ष में मृतव्यक्ति की जो तिथि आये उस तिथि पर मुख्य रूप से पार्वण श्राद्ध करने का विधान है।यथासम्भव पिता की मृत्यु तिथि पर इसे अवश्य करना चाहिये।पार्वण श्राद्ध में पिता पितामह प्रपितामह सपत्नीक अर्थात माता दादी और परदादी –इस प्रकार तीन चट में छः व्यक्तियों का श्राद्ध होता है–इसके साथ ही मातामह,प्रमातामह,वृद्ध प्रमातामह,सपत्नीक अर्थात नानी, परनानी,वृद्ध परनानी —यहां भी तीन चट में छः लोगो का श्राद्ध सम्पन्न होगा।
इसके अतिरिक्त एक चट और लगाया जाता है, जिस पर अपने निकटतम सम्बन्धियों के निमित्त पिण्डदान किया जाता है।इसके अतिरिक्त दो विश्वेदेव के चट लगते हैं।इस तरह से नों चट लगाकर पार्वण श्राद्ध सम्पन्न होता है।पार्वण श्राद्ध में ९ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये।यदि कम कराना है तो तीन ब्राह्मणों को ही भोजन कराया जा सकता है।
यदि अच्छे ब्राह्मण उपलब्ध न हो तो कम से कम एक सन्ध्या वन्दन आदि करने वाले सात्विक ब्राह्मण को भोजन अवश्य करायें!
Aacharya anil joshi
प्रश्न नही अपने आचार्य से सम्पर्क करें।
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#वार्षिकतिथिपर_तथा_पितृपक्ष_की_तिथियों_पर_किया_जाने_वाला_सांकल्पिकश्राद्ध!!—-
किसी कारणवश पिण्डदानात्मक एकोदिष्ट तथा पार्वण श्राद्ध कोई न कर सके तो कम से कम संकल्प करके केवल ब्राह्मण भोजन करा देने से भी श्राद्ध हो जाता है।इसलिये कई जगह मृत व्यक्तियों को तिथियों पर केवल ब्राह्मण भोजन कराने की परम्परा है।यहां ब्राह्मण भोजन के निमित्त सांकल्पिक श्राद्ध की विधि सामान्य रूप से दी जा रही है–
वार्षिक तिथि एकोदिष्ट अथवा पितृपक्ष में पार्वण श्राद्ध की तिथि आने पर पिण्डदानात्मक श्राद्ध सम्भव न होने की स्थिति में अथवा पिंडदान निषिद्ध होने की स्थिति में सांकल्पिक श्राद्ध करने की व्यवस्था शास्त्रों में दी गयी है ।इन तिथियों पर जो पिण्डदानात्मक श्राद्ध न कर सके उन्हें श्राद्ध का संकल्प कर निम्नलिखित प्रक्रिया से ब्राह्मण भोजन करा देना चाहिये।किसी कारण वश ब्राह्मण भोजन न करा सके तो केवल सोपस्कर आमान्न से भी श्राद्ध की पूर्णता हो सकती है—
—-पृथक पृथक पितरो के उद्देश्य से पृथक पृथक संकल्प कराकर विभिन्न ब्राह्मणों को आमान्न प्रदान करना||
——एकतन्त्रेण सभी पितरो के उद्देश्य से आमान्न का संकल्प करके पृथक पृथक ब्राह्मणों को विभाजित कर देना||
——एकतन्त्रेण आमान्न का संकल्प करके एक ही ब्राह्मण को आमान्न देना||
आमान्न संकल्प की विधि– अपने आचार्य पुरोहित से प्राप्त करे-!!
#श्राद्ध_में_पवित्रता_का_महत्व :
‘त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः।
वर्ज्याणि प्राह राजेन्द्र क्रोधोऽध्वगमनं त्वरा।’
– अर्थात् दौहित्र पुत्री का पुत्र, कुतप मध्या- का समय और तिल ये तीन श्राद्ध में अत्यंत पवित्र हैं और क्रोध, अध्वगमन श्राद्ध करके एक स्थान से अन्यत्र दूसरे स्थान में जाना एवं श्राद्ध करने में शीघ्रता ये तीन वर्जित हैं।
#श्राद्धकर्ता_के_लिए_सावधानी :
जो श्राद्ध करने के अधिकारी हैं, उन्हे (पितृपक्ष) पूरे पंद्रह दिनों तक क्षौरकर्म नहीं कराना चाहिए।
तेल, उबटन आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए।
प्रतिदिन स्नान के बाद तर्पण करना चाहिए।
पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
‘#दन्तधावनताम्बूलेतैलाभ्यङ्गमभोजनम्।
#रत्यौषधंपरान्नं_च_श्राद्धकृत्सप्तवर्जयेत्।’
– अर्थात् दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, भोजन करना, स्त्री प्रसंग, औषध सेवन और दूसरे का अन्न ये सात श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित हैं।
श्राद्ध में ब्राह्मण :
‘#सर्वलक्षणसंयुक्तैर्विद्याशीलगुणान्वितैः।
#पुरुषत्रयविख्यातैः सर्वं श्राद्धं प्रकल्पयेत्।
श्राद्ध का अन्न
#यदन्नं पुरुषोऽश्नाति तदन्नं पितृदेवताः।
#अपकेनाथ पकेन तृप्तिं कुर्यात्सुतः पितुः’
अर्थात् मनुष्य जिस अन्न को स्वयं भोजन करता है, उसी अन्न से पितृ और देवता भी तृप्त होते हैं। पकाया हुआ अथवा बिना पकाया हुआ अन्न प्रदान करके पुत्र अपने पितृ को तृप्त करें।> >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
#पंचबलि_विधि : ◆◆◆
पांच पत्तो पर अलग अलग भोजन सामग्री रखकर नीचे लिखे मन्त्रो से पंचबलि करनी चाहिए–
#गौग्रास के लिए मंडल के बाहर पश्चिम की ओर गोम्यः नम पढ़ते हुए सव्य होकर गाय के लिए भोजन पत्तेपर दे-
‘ सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः।
प्रतिगृ-न्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः इदं गोभ्यो न मम्।’
#श्वानबलि- कुत्ते के लिए जनेऊ को कण्ठीकर निम्नलिखित मंत्र से कुत्तों को बलि दें-
‘द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोद्भवौ।
ताभ्यामत्रं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ।’
#काकबलि- कौए के लिए अपसव्य होकर निम्नलिखित मंत्र पढ़कर कौओं को भूमि पर अन्न दें-
ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैर्ऋतास्तथा।
वायसाः प्रतिर्गृन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्
इदमन्नम् वायसेम्यो न मम्।
#देवादिबलि- पत्ते पर सव्य होकर निन्म लिखित मंत्र पढ़कर देवता आदि के लिए अन्न दें-
देवा मनुष्याः पशवो वयांसि।
सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता
ये चात्रमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्।
इदमन्नंदेवादिभ्यो न मम्।
#पिपीलिकादिबलि- चींटियों के लिए इसी प्रकार निम्नालिखित मंत्र से चींटी आदि को बलि दें-
‘पिपीलिकाः कीटपतड़काद्या। बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।
तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयात्रं।
तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु इदमन्नं पिपीलिकादिभ्यो न मम्।’
–तत्पश्चात् ब्राह्मण के लिए थाली अथवा पत्तल में सोपस्कर अन्न परोस लें और अन्नपात्र का स्पर्श करते हुए अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर तिल मोटक जल लेकर पितृतीर्थ से
संकल्प करें—
प्रश्न नही स्वाध्याय करें।।
यह लेख शुद्ध सात्विक शास्त्र मंतव्य को स्वीकारने और आचरण करने वाले हिन्दुओं के लिए है_म्लेच्छ या आशास्त्रीय लोगो के लिए नहीं है।।
अन्य जानकारी के लिए अपने आचार्य से विचार विमर्श करें।।